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Question 1:
पहले पद में कवि ने किस ऋतु का वर्णन किया है?
Answer:
पहले पद में कवि ने वसंत ऋतु का वर्णन किया है।
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Question 2:
इस ऋतु में प्रकृति में क्या परिवर्तन होते हैं?
Answer:
इस ऋतु में प्रकृति में ये परिवर्तन होते हैं-
(क) बगीचे में भँवरों का समूह बढ़ जाता है।
(ख) बगीचों में विभिन्न रंगों के फूल खिलने लगते हैं।
(ग) आम के वृक्षों पर बौर लग जाती हैं।
(घ) नवयुवक भी इसके रंग में रंग गए हैं।
(ड़) पक्षी के समूह शोर मचाने लगते हैं।
(च) बसंत के आगमन से राग, रस, रीति, रंग इत्यादि में बदलाव आ जाता है।
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Question 3:
'औरै' की बार-बार आवृत्ति से अर्थ में क्या विशिष्टता उत्पन्न हुई है?
Answer:
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Question 4:
'पद्माकर' के काव्य में अनुप्रास की योजना अनूठी बन पड़ी है।' उक्त कथन को प्रथम पद के आधार पर स्पष्ट कीजिए।
Answer:
(क) भीर भौंर
(ख) छलिया छबीले छैल और छबि छ्वै गए।
(ग) गोकुल के कुल के गली के गोप गाउन के
(घ) कछू-को-कछू भाखत भनै
(ङ) चलित चतुर
(च) चुराई चित चोराचोरी
(छ) मंजुल मलारन
(ज) छवि छावनो
ऊपर दिए गए उदाहरण पद्माकर की अनूठी अनुप्रास अलंकार योजना पर मुहर लगाते हैं। कवि ने इस प्रकार के प्रयोग करके रचना में चार चाँद लगा दिए हैं।
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Question 5:
होली के अवसर पर सारा गोकुल गाँव किस प्रकार रंगों के सागर में डूब जाता है? पद के आधार पर लिखिए।
Answer:
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Question 6:
कृष्ण प्रेम में डूबी गोपी क्यों श्याम रंग में डूबकर भी उसे निचोड़ना नहीं चाहती?
Answer:
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Question 7:
पद्माकर ने किस तरह भाषा शिल्प से भाव-सौंदर्य को और अधिक बढ़ाया है? सोदाहरण लिखिए।
Answer:
औरै भाँति कुंजन में गुंजरत भीर भौंर,
औरे डौर झौरन पैं बौरन के ह्वै गए।
'औरै' शब्द की पुनरुक्ति चमत्कार उत्पन्न देती है। अनुप्रास अलंकार के प्रयोग के जो ध्वनिचित्र बने हैं, वे अद्भुत हैं। उदाहरण के लिए देखिए-
1. छलिया छबीले छैल औरे छबि छ्वै गए
2. गोकुल के कुल के गली के गोप गाउन के
ऊपर दी पंक्तियों में 'छ', 'क' तथा 'ग' वर्ण के प्रयोग ने रचना को प्रभावशाली बना दिया है। यही कारण है कि उनकी रचना में चित्रात्मकता का समावेश सहज ही हो जाता है। इस प्रकार से भाषा शिल्प के कारण उनका भाव-सौंदर्य सजीव हो गया है। ऐसा लगता है कि भाव रचना से निकलकर जीवित हो गए हैं।
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Question 8:
तीसरे पद में कवि ने सावन ऋतु की किन-किन विशेषताओं की ओर ध्यान आकर्षित किया है?
Answer:
इसकी विशेषताएँ इस प्रकार हैं-
(क) बगीचे में भँवरों का स्वर फैल गया है। उनका गुंजार मल्हार राग के समान प्रतीत होता है।
(ख) इस ऋतु के प्रभाव से ही अपना प्रिय प्राण से अधिक प्यारा लगता है।
(ग) मोर की ध्वनि हिंडोलों की छवि-सी लगती है।
(घ) यह प्रेम की ऋतु है।
(ङ) झूले झूलने के लिए यह सर्वोत्तम ऋतु है।
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Question 9:
'गुमानहूँ तें मानहुँ तैं' में क्या भाव-सौंदर्य छिपा हैं?
Answer:
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Question 10:
संदर्भ सहित व्याख्या कीजिए-
(क) औरै भाँति कुंजन ................. छबि छ्वै गए।
(ख) तौ लौं चलित ......... बनै नहीं।
(ग) कहैं पद्माकर .............. लगत है।
Answer:
व्याख्या- प्रस्तुत पंक्तियों में वसंत ऋतु के आने पर वातावरण की विशेषता बताई गई है। पद्माकर कहते हैं कि बाग में भवरों के समूहों की भीड़ बढ़ गई है। बागों में आम के पेड़ों पर बौरें लग गई हैं। इससे पता चलता है कि फल अब लगने ही वाले हैं। भाव यह है कि वसंत ऋतु में बाग में फूल खिलने लगते हैं, जिसके कारण भवरों की संख्या में वृद्धि हो गई है। ऐसे ही आम के वृक्षों पर बौरें लग गई हैं, जो इस बात का प्रमाण है कि फल लगने वाले हैं।
(ख) प्रसंग- प्रस्तुत पंक्ति प्रसिद्ध कवि पद्माकर द्वारा रचित है। इसमें एक गोपी की दशा का वर्णन किया गया है। उस पर श्याम रंग चढ़ गया है और वह उसे उतारना नहीं चाहती है।
व्याख्या- पद्माकर कहते हैं कि होली खेलते समय एक गोपी पर श्याम (काला) रंग चढ़ गया है। दूसरी सखी उसे इस रंग को निचोड़कर उतारने के लिए कहती है। वह गोपी इस रंग को उतारना नहीं चाहती है। यह रंग कृष्ण के प्रेम का रंग है। वह कहती है कि यदि वह इस रंग को निचोड़ देगी, तो यह रंग निकल जाएगा। वह इस रंग में डूब जाना चाहती है। अतः वह दूसरी गोपी को मना कर देती है। भाव यह है कि जो कृष्ण से प्रेम करता है, वह उसके रंग को अपना लेता है। गोपी भी कृष्ण को प्रेम करती है। अतः कृष्ण से प्रेम करने के कारण कृष्ण का काला रंग भी उसे अच्छा लगता है।
(ग) प्रसंग- प्रस्तुत पंक्ति प्रसिद्ध कवि पद्माकर द्वारा रचित है। प्रस्तुत पंक्ति में पद्माकर वर्षा ऋतु की विशेषता बता रहे हैं। उनके अनुसार यह प्रेम की ऋतु है और इसमें रूठना-मनाना अच्छा लगता है।
व्याख्या- पद्माकर कहते हैं कि वर्षा ऋतु में प्रेमिका को अपना प्रियमत अच्छा लगता है। इसमें रूठे प्रेमी को मनाने में भी आनंद आता है। भाव यह है कि प्रायः जब प्रियतम रूठ जाता है, तो मनुष्य अहंकार वश मनाता नहीं है। वर्षा ऋतु में यदि प्रेमी नाराज़ हो जाए, तो उसे मनाना अच्छा लगता है। यह ऋतु का ही प्रभाव है कि नाराज़ प्रेमी को मनाकर आनंद प्राप्त किया जाता है।
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Question 1:
वसंत एवं सावन संबंधी अन्य कवियों की कविताओं का संकलन कीजिए।
Answer:
पर्वत प्रदेश में पावस
पावस ऋतु थी, पर्वत प्रदेश,
पल-पल परिवर्तित प्रकृति-वेश
मेखलाकार पर्वत अपार
अपने सहस्र दृग-सुमन फाड़,
अवलोक रहा है बार-बार
नीचे जल में निज महाकार,
जिसके चरणों में पला ताल
दर्पण-सा फैला है विशाल!
गिरि का गौरव गाकर झर-झर
मद में नस-नस उत्तेजित कर
मोती की लड़ियों-से सुंदर
झरते हैं झाग भरे निर्झर!
गिरिवर के उर से उठ-उठ कर
उच्चाकांक्षाओं से तरुवर
हैं झाँक रहे नीरव नभ पर
अनिमेष, अटल, कुछ चिंतापर।
उड़ गया, अचानक लो, भूधर
फड़का अपार पारद के पर!
रव-शेष रह गए हैं निर्झर!
है टूट पड़ा भू पर अंबर!
धँस गया धरा में सभय शाल!
उठ रहा धुआँ, जल गया ताल!
यों जलद-यान में विचर-विचर
था इंद्र खेलता इंद्रजाल।
(सुमित्रानंदन पंत)
सुमन झिंगूला सोहै तन छबि भारी दै।
पवन झूलावै, केकी-कीर बतरावैं 'देव',
कोकिल हलावै-हुलसावै कर तारी दै।।
पूरति पराग सों उतारो करै राई नोन,
कंकली नायिका लतान सिर सारी दै।
मदन महीप जू को बालक बसंत ताहि,
प्रातहि जगावत गुलाब चटाकारी दै।।
(देव)
छम छम छम गिरतीं बूँदें तरुओं से छन के।
चम चम बिजली चमक रही रे उर में घन के,
थम थम दिन के तम में सपने जगते मन के।
ऐसे पागल बादल बरसे नहीं धरा पर,
जल फुहार बौछारें धारें गिरतीं झर झर।
आँधी हर हर करती, दल मर्मर तरु चर् चर्
दिन रजनी औ पाख बिना तारे शशि दिनकर।
पंखों से रे, फैले फैले ताड़ों के दल,
लंबी लंबी अंगुलियाँ हैं चौड़े करतल।
तड़ तड़ पड़ती धार वारि की उन पर चंचल
टप टप झरतीं कर मुख से जल बूँदें झलमल।
नाच रहे पागल हो ताली दे दे चल दल,
झूम झूम सिर नीम हिलातीं सुख से विह्वल।
हरसिंगार झरते, बेला कलि बढ़ती पल पल
हँसमुख हरियाली में खग कुल गाते मंगल?
दादुर टर टर करते, झिल्ली बजती झन झन
म्याँउ म्याँउ रे मोर, पीउ पिउ चातक के गण!
उड़ते सोन बलाक आर्द्र सुख से कर क्रंदन,
घुमड़ घुमड़ घिर मेघ गगन में करते गर्जन।
वर्षा के प्रिय स्वर उर में बुनते सम्मोहन
प्रणयातुर शत कीट विहग करते सुख गायन।
मेघों का कोमल तम श्यामल तरुओं से छन।
मन में भू की अलस लालसा भरता गोपन।
रिमझिम रिमझिम क्या कुछ कहते बूँदों के स्वर,
रोम सिहर उठते छूते वे भीतर अंतर!
धाराओं पर धाराएँ झरतीं धरती पर,
रज के कण कण में तृण तृण की पुलकावलि भर।
पकड़ वारि की धार झूलता है मेरा मन,
आओ रे सब मुझे घेर कर गाओ सावन!
इन्द्रधनुष के झूले में झूलें मिल सब जन,
फिर फिर आए जीवन में सावन मन भावन!
(सुमित्रानंदन पंत)
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Question 2:
पद्माकर के भाषा-सौंदर्य को प्रकट करने वाले अन्य पद भी संकलित कीजिए।
Answer:
1. गोकुल के, कुल के, गली के, गोप गाँवन के,
जौ लगि कछू को कछू भाखत भनै नहीं।
कहै पद्माकर परोस पिछ्वारन के,
द्वारन के दौरे गुन औगुन गनै नहीं।
तौं लौं चलि चातुर सहेली! याही कोद कहूँ,
नीके कै निहारै ताहि,भरत मनै नहीं।
हौं तौ श्याम रंग में चोराई चित चोराचोरी,
बोरत तौ बोरयो,पै निचोरत बनै नहीं।
2. गुलगुली गिल मैं गलीचा है गुनीजन हैं,
चाँदनी हैं, चिक हैं, चिरागन की माला है।
कह 'पदमाकर' त्यों गजक गिजा हैं सजी,
सेज हैं, सुराही हैं, सुरा हैं, और प्याला हैं।
सिसिर के पला को न व्यापत कसाला तिन्हैं,
जिनके अधीन एते उदित मसाला हैं।
तान तुक ताला हैं, बिनोद के रसाला हैं,
सुबाला हैं, दुसाला हैं, बिसाला चित्रसाला हैं।
3. चालो सुनि चन्द्रमुखी चित्त में सुचैन करि,
तित बन बागन घनेरे अलि घूमि रहे।
कहै पद्माकर मयूर मंजू नाचत हैं,
चाय सों चकोरनी चकोर चूमि चूमि रहे।
कदम, अनार, आम, अगर, असोक, योक,
लतनि समेत लोने लोने लगि भूमि रहे।
फूलि रहे, फलि रहे,फबि रहे फैलि रहे,
झपि रहे, झलि रहे, झुकि रहे, झूमि रहे।
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